Friday, 29 January 2016

मेरे विचार

chaitanya shree डॉ अम्बेडकर के जीवनी के लेखक श्री सी बी खैरमोरे ने डॉ अम्बेडकर के शब्दों को उदृत करते हुए लिखा है
           " मुझमे और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमति है बल्कि सहयोग भी है   कि हिन्दू समाज को एक जुट और संगठित किया जाये , और हिन्दू धर्म को अन्य मजहबो के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाये "(ब्लिट्ज ,१५ मई १९९३ में उदृत )

मै डॉ आंबेडकर से सहमत हूँ , लेकिन मै   कुछ बातो को लिखना चाह  रहा हूँ जो मेरे दिल में कई दिनों से कचोट रहा है , नेताओ का हैदराबाद  जाना ,अपने  आडम्बर को प्रदशित करना , हम किस दिशा की ओर जा रहे है हमारे समझ से परे  है। भारतीयों में आपसी एकता के लिए कोई उत्शाह नहीं है , आपसी मेल की कोई कामना नहीं है , समान वेश भूसा ,सामान भाषा की कोई इक्षा नहीं है।  जो बाते स्थानीय और लघु पहचान बनाती है उन्हें त्याग कर , जो बाते समान और राष्ट्रीय है उन्हें अपनाने की कोई इक्षा नहीं है। एक गुजरती को गर्व होता है गुजरती होने में , महाराष्ट्रवासी को महाराष्ट्रीय होने में ,पंजाब वाले को पंजाबी होने में मद्रास के व्यक्ति को मद्रासी होने में और बंगलवासी  को बंगाली होने पर गर्व होता है , ऐसी तो है हिन्दुओ की मानसिकता। जो हिन्दू मुसलमानो पर उनमे राष्ट्रीय भावना का अभाव होने का आरोप लगाते  है ,और यह कहने का कारण लगते है की "मै  मुसलमान हूँ ,बाद में भारतीय " . क्या कोई कह सकता है कि समस्त भारत में कही भी ,हिन्दुओ तक में ऐसी कोई मनोभाव विद्द्मान है जो उनकी घोसना -मै भारत का नागरिक हूँ " के पीछे किसी भावुकता के दर्शन करा दे ? अथवा क्या उनमे नैतिकऔर सामाजिक एकता की थोड़ी सी भी चेतना विद्द्मान है जो स्थानीय और लघु का परित्याग कर , जो कुछ साझा और एकता निर्मित करने वाला है ,उसे अपनाने की इक्षा उनमे उत्पन्न करे ?न ऐसी कोई इक्षा है न कोई चेतना , एकता निर्माण के लिए सरकार पर निर्भर होना अपने आपको धोखा देना है। नेता स्थानीय व् राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दुओ को बाटने की पूर जोर कोशिश कर रहे है, हैदराबाद नमूना है हमें इन चीजो से बचना   होगा तभी हम एक खुशाल राष्ट्र की  कल्पना कर सकते है।

                                                                                  आपका चैतन्य श्री


    

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