Sunday, 7 April 2013

मर कर भी न जायेगी , दिल से वफ़ा की उल्फत , मेरी मिटटी से भी खुसबू -ए -वतन आयेगी .

chaitanya shreeसन१ ९ २ ६  की एक घटना है , चन्द्र शेखर आजाद अंग्रेजो से बचकर वैक्तिगत रूप से बापू से मिले  थे  और सिर्फ उन्हें इतना कहा था - बापू हमारे  दिलो में आपके लिये बड़ा सम्मान है , सारा राष्ट्र आपका सम्मान करता है ,कृपया आप हम पर  एक उपकार कर दे अपने वैक्तिगत संबोधनों में हमें आतंकवादी न कहा करे ,इससे हमें दुःख होता है .
बापू ने जवाब दिया -
" तुम्हारा  मार्ग हिंसा का है और हिंसा का अवलंबन लेने वाला हर वैक्ति  मेरी नज़र में आतंकवादी है. ."
चन्द्रशेखर वापस आ गये.
जो बापू के अनुयाई  थे  वह नेहरु और बापू के प्रभाव में क्रांतिकारियों को तो हे दृष्टी से देखते थे , परन्तु जब ये अहिंसक किसी घटना के कारन ब्रिटिश  जुल्म के  कोपभाजन बनते थे,और पुलिस उन्हें मार -मारकर बेहाल कर देती थी, तो इस अत्याचार का क्रांतिकारियों पर बड़ा विपरीत असर पड़ता था .
 भगत सिंग  तब असेंबली के बहार चरखा लेकर नहीं गए थे, उन्होंने असेंबली के बहार कोई "वैष्णव जन तेने कहिये " की गुहार नहीं लगाई थी . वह किसी की हत्या भी नहीं करना चाहते थे , उनके हाथ में  बम  था , जिसकी गूँज उस दिन लाहोर से लन्दन  तक गूंजी थी . सारा जीवन लडे  , पर शेरो की तरह रहे.
           मर कर भी न जायेगी , दिल से वफ़ा की उल्फत ,
           मेरी मिटटी से भी खुसबू -ए -वतन आयेगी .
  मेरा सवाल
 मेरा सवाल कांग्रेसी और गांधीवादियों से है , बापू समेत क्या किसी में भी यह हिम्मत नहीं  हुई की "लार्ड इरविन " को यह कह सकते की हम तब तक कोई  समझौता नहीं कर सकते जब तक इन क्रांतिकारियों को अंग्रेज  छोड़ नहीं देते ? क्या हो जाता अगर जेल के  बहार भूख हड़ताल का ढोंग करने वाले  ने जेल के अन्दर इस मुद्दे पर "भूख हड़ताल" की होती की पहले भगत सिंह और उनके साथियो को छोड़ो ,उन्होंने किसी की हत्या नहीं की है, केवल धमाका किया है और उन पर चलाये जा रहे मुकदमे अंग्रेज वापस ले ?
 अगर ऐसा होता तो भारत का इतिहास स्वर्णिम हो जाता ,भगत सिंह को फासी  के तख्ते पर झुलाने की आज्ञा  हो गयी और गाँधी इरविन पैक्ट भी उसी वर्ष हो गया .
   

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