chaitanya shreeजीतेगा राष्ट्रवाद हारेगा जातिवाद भाग-५ (मनुस्मृति का सच क्या है )अपवाह से बचे।
जाति जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड ,
मै क्या जानूं जाति , जाति है ये मेरे भुज -दंड।
यह गहन प्रश्न है , कैसे रहस्य समझाए ?(रामधारी सिंह दिनकर )
दोस्तों लेकिन मै आप लोगो को रहस्य जरूर बताऊंगा।
जो परमात्मा के चरणो से उत्पन्न हुआ वह शूद्र कैसे ?
जो लोग जातिगत राजनीती कर रहे है ,और हिन्दू समाज में वैमनस्यता का जहर घोल रहे है ,यह बहुत ही चिंता का विषय है। मै यह मानता हूँ आप अगर भगवान की पूजा करने मंदिर जाते है तो भगवान के मुख की पूजा करते है या बाह की या पेट की या चरणो की ?किसकी पूजा करते है आप ?हे भगवान मुझे अपने मुख में जगह दे दो ,ऐसा कहते है ? अपने पेट में जगह दे दो ,ऐसा मैंने आज तक किसी भी भजन में नहीं सुना। अपनी बाहो में जगह दे दो , ऐसा भी नहीं कहते। आप कहते है , हे भगवान ; मुझे अपने चरणो में जगह दे दो , क्योकि उनके चरण शुद्ध है , फिर चरणो से उत्पन्न हुआ शूद्र भला असुद्ध कैसे हो गया ? अशुद्ध नहीं वह परम शुद्ध है।
वर्ण व्यवस्था राष्ट्र के चतुर्दिक विकास के लिए था ना की जातिगत भेद के लिए -
ब्राह्मण - ब्राह्मण जो ज्ञानवान हो और सम्पूर्ण समाज के हित ,सुख और रक्षा के लिए ज्ञान प्राप्त करने में सजग हो , जो अपने ज्ञान से सम्पूर्ण समाज को लाभान्वित करता हो जैसे मुख से खाना खा कर शरीर में पंहुचा देता है ,वैसे ही जो स्वयं ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान को समाज के व्यक्ति -व्यक्ति तक पहुचने के लिए प्रयत्नरत हो ,वे ही ब्राह्मण कहलाते है ऐसा मेरा मानना है। जो कोई भी बन सकता है। कहा जाता है उत्कृष्ट और सच्चे ब्राह्मणो से परिपूर्ण समाज निश्चय ही उत्कृष्ट होगा , समाज ब्राह्मण के मुख से बोलता है।
क्षत्रिय - परमात्मा के बाजुओ से क्षत्रियों को उत्पन्न कहने का मतलब है की बाजू सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करता है और हर घात को स्वयं झेलकर शरीर को बचाने का प्रयत्न करता है , शरीर के किसी भी अंग को कोई कष्ट हो सर्वप्रथम हाथ ही वह पहुंच कर उसकी सेवा करता है। इसलिए क्षत्रिय का काम समाज की रक्षा -सेवा करना ,और हर घात का वह स्वयं सामना करे और समाज को अमन - चैन के साथ फलने -फूलने दे , यह कार्य कोई भी कर सकता है और क्षत्रिय बन सकता है।
वैश्य - आपको पता है परमात्मा के पेट से वैश्यों की उत्पत्ति हुई है ,इसका तात्पर्य यह है कि जैसे पेट खाए हुए पदार्थो का संग्रह करता है , वैसे ही वैश्य भी समाज के लिए धन संग्रह करता है। जैसे पेट भोज्य पदार्थो को अपने में संगृहीत करते हुए भी उसे हड़प जाने की नियत नहीं रखता ,बल्कि उसके रास-रक्त को सरे शरीर में भेज देता है ,वैसे ही वैश्य भी व्यक्तिगत स्वार्थ और भोग मात्र के लिए धन संग्रह नहीं करे ,प्रत्युत लोकमंगल के लिए उसे समाज को लौटता रहे।
शूद्र - जैसे पैरो पर सम्पूर्ण शरीर का भार रहता है , वैसे ही सम्पूर्ण समाज की उन्नति श्रमगारो ,कार्यशीलो और कर्मठो पर है , वे अपने श्रम , कार्यकुशलता और कर्मठता के द्वारा समाज की तरक्की में अपना योगदान दे -यही है परमात्मा के पैरो से शूद्र की उत्त्पत्ति का अर्थ।
मै मानता हूँ की इसका समाज में प्रचार -प्रसार होना चाहिए और समाज को व्यर्थ के बकवादो ,द्वेष , नफरत , भेद की आग में जलने से बचाकर उसे सही और सशक्त दृष्टिकोण देना चाहिए। इसी से हमारे देश का सम्पूर्ण सामाजिक ,राजनितिक , विकास संभव है।
जाति जाति रटते जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड ,
मै क्या जानूं जाति , जाति है ये मेरे भुज -दंड।
यह गहन प्रश्न है , कैसे रहस्य समझाए ?(रामधारी सिंह दिनकर )
दोस्तों लेकिन मै आप लोगो को रहस्य जरूर बताऊंगा।
जो परमात्मा के चरणो से उत्पन्न हुआ वह शूद्र कैसे ?
जो लोग जातिगत राजनीती कर रहे है ,और हिन्दू समाज में वैमनस्यता का जहर घोल रहे है ,यह बहुत ही चिंता का विषय है। मै यह मानता हूँ आप अगर भगवान की पूजा करने मंदिर जाते है तो भगवान के मुख की पूजा करते है या बाह की या पेट की या चरणो की ?किसकी पूजा करते है आप ?हे भगवान मुझे अपने मुख में जगह दे दो ,ऐसा कहते है ? अपने पेट में जगह दे दो ,ऐसा मैंने आज तक किसी भी भजन में नहीं सुना। अपनी बाहो में जगह दे दो , ऐसा भी नहीं कहते। आप कहते है , हे भगवान ; मुझे अपने चरणो में जगह दे दो , क्योकि उनके चरण शुद्ध है , फिर चरणो से उत्पन्न हुआ शूद्र भला असुद्ध कैसे हो गया ? अशुद्ध नहीं वह परम शुद्ध है।
वर्ण व्यवस्था राष्ट्र के चतुर्दिक विकास के लिए था ना की जातिगत भेद के लिए -
ब्राह्मण - ब्राह्मण जो ज्ञानवान हो और सम्पूर्ण समाज के हित ,सुख और रक्षा के लिए ज्ञान प्राप्त करने में सजग हो , जो अपने ज्ञान से सम्पूर्ण समाज को लाभान्वित करता हो जैसे मुख से खाना खा कर शरीर में पंहुचा देता है ,वैसे ही जो स्वयं ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान को समाज के व्यक्ति -व्यक्ति तक पहुचने के लिए प्रयत्नरत हो ,वे ही ब्राह्मण कहलाते है ऐसा मेरा मानना है। जो कोई भी बन सकता है। कहा जाता है उत्कृष्ट और सच्चे ब्राह्मणो से परिपूर्ण समाज निश्चय ही उत्कृष्ट होगा , समाज ब्राह्मण के मुख से बोलता है।
क्षत्रिय - परमात्मा के बाजुओ से क्षत्रियों को उत्पन्न कहने का मतलब है की बाजू सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करता है और हर घात को स्वयं झेलकर शरीर को बचाने का प्रयत्न करता है , शरीर के किसी भी अंग को कोई कष्ट हो सर्वप्रथम हाथ ही वह पहुंच कर उसकी सेवा करता है। इसलिए क्षत्रिय का काम समाज की रक्षा -सेवा करना ,और हर घात का वह स्वयं सामना करे और समाज को अमन - चैन के साथ फलने -फूलने दे , यह कार्य कोई भी कर सकता है और क्षत्रिय बन सकता है।
वैश्य - आपको पता है परमात्मा के पेट से वैश्यों की उत्पत्ति हुई है ,इसका तात्पर्य यह है कि जैसे पेट खाए हुए पदार्थो का संग्रह करता है , वैसे ही वैश्य भी समाज के लिए धन संग्रह करता है। जैसे पेट भोज्य पदार्थो को अपने में संगृहीत करते हुए भी उसे हड़प जाने की नियत नहीं रखता ,बल्कि उसके रास-रक्त को सरे शरीर में भेज देता है ,वैसे ही वैश्य भी व्यक्तिगत स्वार्थ और भोग मात्र के लिए धन संग्रह नहीं करे ,प्रत्युत लोकमंगल के लिए उसे समाज को लौटता रहे।
शूद्र - जैसे पैरो पर सम्पूर्ण शरीर का भार रहता है , वैसे ही सम्पूर्ण समाज की उन्नति श्रमगारो ,कार्यशीलो और कर्मठो पर है , वे अपने श्रम , कार्यकुशलता और कर्मठता के द्वारा समाज की तरक्की में अपना योगदान दे -यही है परमात्मा के पैरो से शूद्र की उत्त्पत्ति का अर्थ।
मै मानता हूँ की इसका समाज में प्रचार -प्रसार होना चाहिए और समाज को व्यर्थ के बकवादो ,द्वेष , नफरत , भेद की आग में जलने से बचाकर उसे सही और सशक्त दृष्टिकोण देना चाहिए। इसी से हमारे देश का सम्पूर्ण सामाजिक ,राजनितिक , विकास संभव है।
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